जन्म कुंडली में बारह भावों के चार त्रिकोण होते हैं और एक त्रिकोण तीन भावो से बनता है। लेकिन सभी चारों त्रिकोणों का अपना अपना महत्त्व है!
1) धर्म त्रिकोण
2) अर्थ त्रिकोण
3) काम त्रिकोण
4) मोक्ष त्रिकोण
धर्म त्रिकोण:
यह प्रथम, पंचम तथा नवम भाव से मिलकर बनता है। यह हमें बताता है कि हमें यह जन्म क्यों मिला है?
यह बताता है कि हम पूर्व में क्या थे? अब हम इस जन्म में क्यों आये है और इस जन्म में हमें क्या करना है?
यह हमारे इस जन्म के भाग्य एवं प्रारब्ध को दर्शाता है।
लग्न हमारी कुंडली का सबसे मुख्य भाव है, क्योंकि यह केंद्र भी है। और त्रिकोण भी। यह हमारे जीवन की धुरी है। इससे हमें हमारे शरीर का पता चलता है। हम क्या सोचते हैं, कितना समर्थ हैं, कितनी बुद्धि है, कैसा बल है? इन सब बातों का पता लग्न से चलता है। इस जन्म के उद्देश्य को पूरा करने में लग्न का बहुत महत्व है।
लग्न भाव क्षीण होगा तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असहजता का अनुभव करेंगे।
पंचम भाव उन गुणों या क्षमताओं को प्रदर्शित करता है जो हमें पूर्व जन्म के कर्मों के कारण मिली है। यहाँ ये आवश्यक नहीं है कि हम इस भाव को केवल अच्छे कर्मों का फल मानें। यदि पूर्व जन्म के कर्म बुरे हैं तो इस जन्म में हमें विसंगतियां भी मिलती है।
नवम भाव भाग्य का होता है, क्योंकि भाग्य के कारण ही हम पाते हैं कि कम प्रयास में हमारे काम सुगमतापूर्वक हो जाते हैं। इसी प्रकार नवम भाव दर्शाता है कि हमारे अंदर सही मार्ग पर चलने की कितनी समझ है। हमारे आदर्श कितने ऊँचे हैं। हम कितने अंतर्ज्ञानी हैं। और हमारा भाग्य कितना सहयोगी है।
अर्थ त्रिकोण
यह दूसरे, छठे और दसवें भाव से मिलकर बनता है। जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निश्चित ही हमें धन अर्थात अर्थ की आवश्यकता होती है, तो यह त्रिकोण हमारे जीवन में इसी को प्रदर्शित भी करता है।
दूसरा भाव जीवन में धन के स्त्रोत को दिखाता है। यह उन सभी वस्तुओं को बताता है जो कि हमारे जीवन यापन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
छठा भाव इस बात का कारक है कि हम कितना अपने जीवन को व्यवस्थित रखते हैं। हम कितना सुलझे तरीके से कार्य को करते हैं। हमारी आदतें, दैनिक जीवन की गुणवत्ता का पता छठे भाव से ही चलता है।
इसी प्रकार दसवां भाव हमारे कर्मों को दिखाता है,जो कि हम समाज में करते हैं। इसीलिए यह हमारा कार्यक्षेत्र का भाव कहलाता है।
धन का स्त्रोत कार्यक्षेत्र से ही होता है।
काम त्रिकोण
यह त्रिकोण तीसरे, सातवें और ग्याहरवें भाव से मिलकर बना होता है। धनोपार्जन करने के पश्चात हम इस धन का उपयोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करते हैं। यह त्रिकोण हमारे जीवन में उस प्रेरणा बल को दिखाता है जो हमें अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रेरित करता है। हमारे भीतर उन नए क्षेत्रों के प्रति जिज्ञासा जगाता है जिन्हें हम जानना चाहते हैं। जिनको हम भोगना चाहते हैं। इस त्रिकोण के माध्यम से हम सांसारिक सुखों की ओर अग्रसर होते हैं।
तीसरा भाव हमें वह हिम्मत और प्रेरणा देता है, जो कि इच्छा पूर्ति के लिए आवश्यक होता है।
सातवाँ भाव हमें कामेच्छा की ओर ले जाता है जिसे हम अपने जीवन साथी से प्राप्त करते हैं। यह भाव हमें अन्य लोगों कि तरफ भी आकर्षित करता है। क्योंकि हम अपनी इच्छा दूसरों के माध्यम से ही पूरी करते हैं। जैसे व्यापार और सामाजिक बंधन। सामाजिक बंधनों के द्वारा हम अपने सुख दुःख का आदान प्रदान करते हैं।
ग्यारहवां भाव हमें उन लक्ष्यों की तरफ ले जाता है, जो हम अपने जीवन में निर्धारित करते हैं। यह भाव मित्र देता है। क्योंकि सच्चे मित्रों की सहायता से हम अपने लक्ष्यों या लाभ को आसानी से प्राप्त करते हैं। अतः निजी लाभ के लिए यह भाव हमें संसार से जोड़ता है।
मोक्ष त्रिकोण-
यह चौथे, आठवें और बारहवें भाव से मिलकर बनता है। मोक्ष का मतलब होता है बंधनों से छुटकारा। इस त्रिकोण के माध्यम से हम सांसारिक मोह माया से ऊपर उठ कर वास्तविक सत्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
चौथा भाव बताता है कि यह सत्य बाहरी संसार में नहीं बल्कि हमारे अन्तः करण अर्थात मन में स्थित होता है।
आठवाँ भाव मृत्यु के रूप में हमें शरीर से मुक्त करने कि शक्ति रखता है।
बारहवां भाव का शास्त्रोक्त रूप है कि कैसे हम मन और शरीर से मुक्त होकर आत्म ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं।
इस प्रकार एक जन्मकुण्डली में चार त्रिकोण बनते हैं।
प्रोक्ता: कलौ दानं दया दम:।।-- बृहस्पति।
सतयुग का धर्म तप, त्रेता का ज्ञान, द्वापर का यज्ञ व कलियुग का धर्म दान दया व दम है।
धर्म, दान, यज्ञ, दान दया यह सभी मन से व हाथों से किये जाते हैं। इनको करने से भाग्य चमकता है, यही मनुष्य का कर्म है। इसका उत्तर ज्योतिष शास्त्र देता है।
तीसरा भाव हाथ है, तीसरे भाव से बारहवां भाव कर्म है। चौथा भाव से बारहवां भाव भाग्य है।
भाग्य से बारहवां भाव सुख है। बारहवां भाव से तीसरा भाव सुख है। जो मन से अपने हाथों से दान करता है, उसका भाग्य बनता है, उसे सुख मिलता है। दान अहंकार को त्याग कर, समस्त जीवों पर दया का भाव रखते हुए करना चाहिए। सुई के नोक के बराबर दान भी अगर मन से कर लिया तो भाग्य बनेगा ही।
॥ॐ॥ का जप करते समय १०8 प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है, जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास का प्रबल कारण है।
॥ 108 ॥
यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे ऋषि -मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है।
संख्या 108 का रहस्य
अ→१ ... आ→२ ... इ→३ ... ई→४ ... उ→५ ... ऊ→६. ... ए→७ ... ऐ→८ ओ→९ ... औ→१० ... ऋ→११ ... लृ→१२
अं→१३ ... अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६
क→१ ... ख→२ ... ग→३ ... घ→४ ...
ङ→५ ... च→६ ... छ→७ ... ज→८ ...
झ→९ ... ञ→१० ... ट→११ ... ठ→१२ ...
ड→१३ ... ढ→१४ ... ण→१५ ... त→१६ ...
थ→१७ ... द→१८ ... ध→१९ ... न→२० ...
प→२१ ... फ→२२ ... ब→२३ ... भ→२४ ...
म→२५ ... य→२६ ... र→२७ ... ल→२८ ...
व→२९ ... श→३० ... ष→३१ ... स→३२ ...
ह→३३ ... क्ष→३४ ... त्र→३५ ... ज्ञ→३६ ...
ड़ ... ढ़ ...
ओ अहं = ब्रह्म
ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८
1. यह मात्रिकाएं (१८स्वर +३६व्यंजन=५४) नाभि से आरंभ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे 108 की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार 108 मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की 108 सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। जितना हो सके उतना करना ठीक होता है, लेकिन नित्य कम से कम 108 मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।।
2. मनुष्य शरीर की ऊंचाई
= यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि
= (4 ऊंगुलियों) का २7 गुणा होती है।
= 4 × 27 = 108
3. नक्षत्रों की कुल संख्या = 27
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = 4
जप की विशिष्ट संख्या = 108
अर्थात ॐ मंत्र जप कम से कम 108 बार करना चाहिये ।
4. पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=108
पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=108
यानि की मंत्र जप 108 से कम नहीं करना चाहिए।
5. हिंसात्मक पापों की संख्या 36 मानी गई है जो मन, वचन व कर्म 3 प्रकार से होते है। यानि की 36×3=108। पाप कर्म संस्कार निवृत्ति के लिए किए गए मंत्र जप को कम से कम 108 जरूर ही करना चाहिए।
6. 24 घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और बाकी 12 घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार। इस समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिए 108 की संख्या निर्धारित करते हैं।
7. एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माह दक्षिणायन में यान कि सूर्य छः माह की एक स्थिति में १०८००० बार कलाएं बदलता है।
8. 786 का भी पक्का जबाब — ॥ १०८ ॥
9. ब्रह्मांड को 12 भागों में विभाजित किया गया है। इन 12 भागों के नाम - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन 12 राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। ग्रहों की संख्या 9 में राशियों की संख्या 12 से गुणा करें तो संख्या 108 प्राप्त हो जाती है।
10. 108 में तीन अंक हैं, 1+0+8, इनमें एक '1' ईश्वर का प्रतीक है। ईश्वर का एक सत्ता है अर्थात ईश्वर १ है और मन भी एक है। शून्य '0' प्रकृति को दर्शाता है। आठ '8'
जीवात्मा को दर्शाता है क्योंकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर '1' का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति '0' में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति '0' को, यानि की जो की जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा या कहे शून्य नहीं करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव '8' ईश्वर '1' से नहीं मिल पायेगा । पूर्णता (1+8=9) को नहीं प्राप्त कर पायेगा ।
9पूर्णता का सूचक है।
11.
१- ईश्वर और मन
२- द्वैत, दुनिया, संसार
३- गुण प्रकृति (माया)
४- अवस्था भेद (वर्ण)
५- इन्द्रियाँ
६- विकार
७- सप्तऋषि, सप्तसोपान
८- आष्टांग योग
९- नवधा भक्ति (पूर्णता)
12. वैदिक विचार धारा में मनुस्मृति के अनुसार
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =
प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८
13.
संख्या '1' एक ईश्वर का संकेत है।
संख्या '0' जड़ प्रकृति का संकेत है।
संख्या '8' बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है।
यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ।
यही पवित्र त्रेतवाद है ।
संख्या '2' से '9' तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में '0' रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिए अगर '0' ना हो तो कोई क्रम गणना नहीं हो सकती। '1' की चेतना से '8' का खेल । '8' यानि '2' से '9' । यह '8' क्या है ? मन के '8' वर्ग या भाव । ये आठ भाव ये हैं - १. काम- इच्छाएं / वासनाएं ।
२. क्रोध ।
३. लोभ ।
४. मोह ।
५. मद ( घमण्ड )
६. मत्सर ( जलन )
७. ज्ञान ।
८. वैराग ।
14. सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारो ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें ।
इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ वसुओं से टक्कर होती हैं। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ वसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्मांड मंध निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है।
मेष राशि जहां नीच राशि है, वहीं शत्रु राशि भी और तुला जहां मित्र राशि है वहीं उच्च राशि भी है। शनि वात रोग, मृत्यु, चोर-डकैती मामला, मुकद्दमा, फांसी, जेल, तस्करी, जुआ, जासूसी, शत्रुता, लाभ-हानि, दिवालिया, राजदंड, त्याग पत्र, राज्य भंग, राज्य लाभ या व्यापार-व्यवसाय का कारक माना जाता है।
शनि की दृष्टि- शनि जिस राशि में स्थित होता है उससे तृतीय, सप्तम और दशम राशि पर पूर्ण दृष्टि रखता है। ऐसा भी माना जाता है, कि शनि जहाँ बैठता है, वहां तो हानि नहीं करता, पर जहाँ-२ उसकी दृष्टि पड़ती है, वहां बहुत हानि होती है।
शनि की साढ़ेसाती तब शुरू होती है जब शनि गोचर में जन्म राशि से 12वें घर में भ्रमण करने लगता है, और तब तक रहती है जब वह जन्म राशि से द्वितीय भाव में स्थित रहता है। वास्तव में शनि जन्म राशि से 45 अंश से 45 अंश बाद तक जब भ्रमण करता है तब उसकी साढ़ेसाती होती है।
इसी प्रकार चंद्र राशि से चतुर्थ या अष्टम भाव में शनि के जाने पर ढैया आरंभ होती है। सूक्ष्म नियम के अनुसार जन्म राशि से चतुर्थ भाव के आरंभ से पंचम भाव की संधि तक और अष्टम भाव के आरंभ से नवम भाव की संधि तक शनि की ढैया होनी चाहिए।
नोट : साढ़ेसाती और ढैय्या हमेशा राशि - यानि कि जिस राशि में जन्म कुण्डली में चन्द्रमा स्थित होता है, उस से देखी जाती हैं.
भ्रम- लोग यह सोच कर ही घबरा जाते हैं कि शनि की साढ़े साती शुरू हो गयी तो कष्ट और परेशानियों की शुरूआत होने वाली है। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं जो लोग ऐसा सोचते हैं वे अकारण ही भयभीत होते हैं वास्तव में अलग अलग राशियों के व्यक्तियों पर शनि का प्रभाव अलग अलग होता है।
लक्षण और उपाय
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लक्षण- ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या आने के कुछ लक्षण हैं जिनसे आप खुद जान सकते हैं कि आपके लिए शनि शुभ हैं या प्रतिकूल।
जैसे घर, दीवार का कोई भाग अचानक गिर जाता है। घर के निर्माण या मरम्मत में व्यक्ति को काफी धन खर्च करना पड़ता है।
घ्रर के अधिकांश सदस्य बीमार रहते हैं, घर में अचानक अग लग जाती है, आपको बार-बार अपमानित होना पड़ता है। घर की महिलाएं अक्सर बीमार रहती हैं, एक परेशानी से आप जैसे ही निकलते हैं दूसरी परेशानी सिर उठाए खड़ी रहती है। व्यापार एवं व्यवसाय में असफलता और नुकसान होता है। घर में मांसाहार एवं मादक पदार्थों के प्रति लोगों का रूझान काफी बढ़ जाता है। घर में आये दिन कलह होने लगता है। अकारण ही आपके ऊपर कलंक या इल्ज़ाम लगता है। आंख व कान में तकलीफ महसूस होती है एवं आपके घर से चप्पल जूते गायब होने लगते हैं, या जल्दी-जल्दी टूटने लगते हैं। इसके अलावा अकारण ही लंबी दूरी की यात्राएं करनी पड़ती है।
व्यक्ति को अनचाही जगह पर तबादला मिलता है। व्यक्ति को अपने पद से नीचे के पद पर जाकर काम करना पड़ता है। आर्थिक परेशानी बढ़ जाती है। व्यापार करने वाले को घाटा उठाना पड़ता है।
आजीविका में परेशानी आने के कारण व्यक्ति मानसिक तौर पर उलझन में रहता है। इसका स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
व्यक्ति को जमीन एवं मकान से जुड़े विवादों का सामना करना पड़ता है।
सगे-संबंधियों एवं रिश्तेदारों में किसी पैतृक संपत्ति को लेकर आपसी मनमुटाव और मतभेद बढ़ जाता है। शनि महाराज भाइयों के बीच दूरियां भी बढ़ा देते हैं।
शनि का प्रकोप जब किसी व्यक्ति पर होने वाला होता है तो कई प्रकार के संकेत शनि देते हैं। इनमें एक संकेत है व्यक्ति का अचानक झूठ बोलना बढ़ जाना।
उपाय- शनिदेव भगवान शंकर के भक्त हैं, भगवान शंकर की जिनके ऊपर कृपा होती है उन्हें शनि हानि नहीं पहुंचाते अत: नियमित रूप से शिवलिंग की पूजा व अराधना करनी चाहिए। पीपल में सभी देवताओं का निवास कहा गया है इस हेतु पीपल को आर्घ देने अर्थात जल देने से शनि देव प्रसन्न होते हैं। अनुराधा नक्षत्र में जिस दिन अमावस्या हो और शनिवार का दिन हो उस दिन आप तेल, तिल सहित विधि पूर्वक पीपल वृक्ष की पूजा करें तो शनि के कोप से आपको मुक्ति मिलती है। शनिदेव की प्रसन्नता हेतु शनि स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।
शनि के कोप से बचने हेतु आप हनुमान जी की आराधाना कर सकते हैं, क्योंकि शास्त्रों में हनुमान जी को रूद्रावतार कहा गया है। आप साढ़े साते से मुक्ति हेतु शनिवार को बंदरों को केला व चना खिला सकते हैं। नाव के तले में लगी कील और काले घोड़े का नाल भी शनि की साढ़े साती के कुप्रभाव से आपको बचा सकता है अगर आप इनकी अंगूठी बनवाकर धारण करते हैं। लोहे से बने बर्तन, काला कपड़ा, सरसों का तेल, चमड़े के जूते, काला सुरमा, काले चने, काले तिल, उड़द की साबूत दाल ये तमाम चीज़ें शनि ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएं हैं, शनिवार के दिन इन वस्तुओं का दान करने से एवं काले वस्त्र एवं काली वस्तुओं का उपयोग करने से शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
साढ़े साती के कष्टकारी प्रभाव से बचने हेतु आप चाहें तो इन उपायों से भी लाभ ले सकते हैं
अंगिरा ऋषि-ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।
विश्वामित्र ऋषि-गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।
वशिष्ठ ऋषि- ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।
कश्यप ऋषि- मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।
जमदग्नि ऋषि- भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।
अत्रि ऋषि- सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।
अपाला ऋषि- अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।
नर और नारायण ऋषि-ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।
पराशर ऋषि- ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।
भारद्वाज ऋषि- बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।
वेदों के रचयिता ऋषि
अगर आपके घर के किसी भी नल या फिर टंकी में से पानी टपकता है तो इसका मतलब है कि आपके घर से धन का अत्याधिक व्यय हो रहा है।
इन्हें हमेंशा ठीक रखें। शास्त्रों में जल को देवता कहा गया है, जब कोई बिना कारण जल का अपव्यय करता है तो उसके घर धन नहीं रुक पाता।
आप जब भी जल पीए उतना ही ग्लास में लें जितने की आवश्यकता हो, यदि जल गिलास में बच जाए तो उसे बहा दीजिए, उसे फेंके नहीं।
बर्बाद पानी को धन बराबर हानि मानने वाले कहीं भूखे नहीं रहेंगे, यह वास्तुशास्त्र का सिद्धान्त है।
हवा का प्रवाह में कमी, और दीवारों से आती नहीं, अर्थात् पानी भरी नींव। हवा पूरब-पश्चिम से आती जाती रहे, वक्त पर धूप आए, साथ ही नीव ठीक करानी चाहिेए।
घर में दमा का रोगी हो तो अपने बैठने वाले कमरे की, पश्चिम दिशा की दीवार पर पेंडुलम वाली सफेद या सुनहरी-पीले रंग की दीवार घड़ी लगा देनी चाहिए।
ईशान दिशा में ना रखें कचरा, आवास, घर फैक्ट्री, बिल्डिंग के उत्तर-पूर्व में कभी भी कचरा इकट्ठा ना होने दें और इधर भारी सामान, गंदा काम, भारी मशीने आदि कभी नहीं रखें, इससे आपके घर में वास्तु दोष लगता है।
साथ आप अपनी वंश की उन्नति के लिए मुख्य द्वार पर सफेद आंखा, आंवला, तुलसी, अशोक का वृक्ष दोनों तरफ लगाएं।इससे आपके घर का वास्तुदोष काफी हद तक समाप्त होगा साथ ही नकारात्मक ऊर्जा कभी घर में प्रवेश नहीं करेगी।
पश्चिम कोण में कुआं, जल बोरिंग या भूमिगत पानी का स्थान होने से धन हानि निश्चित ही होती है। शरीर में शुगर बढ़ने लगता है।
दक्षिण-पश्चिम कोण में हरियाली, बगीचा या छोटे-छोटे पौधे भी हानि न मानसिक कलेश का कारण बनता है।
दक्षिण-पश्चिम ऊंचा व ठोस होना चाहिए, प्लॉट का दक्षिण-पश्चिम कोना बढ़ा हुआ है तब भी शुगर का आक्रमण सम्भव है।
कई बार बेमेल विवाह भी देखा जाता है जैसे किसी विधवा से विवाह होना या भावुकता वश किसी परित्यक्ता से विवाह कर लेना आदि अथवा वर-वधु की आयु में सामान्य से अधिक अंतर होना भी देखा गया है। ऐसी शादी के कई कारण होते हैं।
1) जन्म कुंडली में कर्क राशि में शुक्र व राहु की युति होने से भावुकतावश जातक ऐसा कदम उठाता है।
2) लग्न में मिथुन राशि में सूर्य स्थित हो तब व्यक्ति का अस्थिर स्वभाव होने से ऐसा हो सकता है क्योंकि मिथुन राशि द्विस्वभाव मानी गई है।
3) जन्म कुंडली में बुध यदि राहु के साथ स्थित हो तब व्यक्ति अस्थिर मानसिकता का होने के कारण परंपराओं का पालन नहीं करता है।
4) चंद्र यदि सप्तम भाव में स्थित हो स्थित हो जातक मानसिकता अस्थिरता अथवा चपलता के कारण ऐसा कर सकता है। यदि सप्तम भाव में धनु राशि का चंद्रमा हो तब जातक परंपराओं का उल्लंघन करने वाला होता है।
5) अष्टमेश यदि कुंडली के पंचम भाव में स्थित है तब भी बेमेल संबंध बन जाते हैं।
6) किसी जन्म कुंडली में चंद्रमा के साथ शनि स्थित हो तब जातक मानसिक तनाव में आकर बेमेल विवाह का कदम उठा सकता है। इस योग में जातक द्वारा नशीले पदार्थों का सेवन भी किया जा सकता है।
7) जन्म कुंडली का पंचम भाव प्रेम संबंधों के लिए भी देखा जाता है। यदि किसी कुंडली में पंचमेश बारहवें भाव में स्थित है तब अंतर्जातीय विवाह हो सकता है अथवा बेमेल विवाह के योग भी बन सकते हैं।
8) जन्म कुंडली में सूर्य यदि अपनी नीच राशि तुला में स्थित है तब भी जातक परंपराओं का त्यागकर कुछ अमान्य संबंध बना सकता है।
9) यदि किसी जन्म कुंडली में चंद्रमा तथा मंगल पंचम भाव में युति कर रहे हों तो अधिकाँश संबंध कामुकता के वश में होकर बनते हैं। यदि बुध व राहु भी पंचम भाव में स्थित है तब जातक की मानसिक अस्थिरता के कारण संबंध बन सकते हैं।
10) यदि किसी कुंडली में द्वितीयेश के साथ सप्तमेश का किसी भी तरह से संबंध स्थापित हो रहा है तब प्रेम विवाह पहले से जानने वाले व्यक्ति से हो सकता है।
11) पुरुषों की कुंडली में शुक्र को कामेच्छा का ग्रह माना जाता है और स्त्री कुंडली में मंगल को माना गया है। जब किसी स्त्री की जन्म कुंडली में मंगल के ऊपर से गोचर के राहु अथवा शनि गुजरते हैं तब उस स्त्री का किसी पुरुष से संबंध स्थापित हो सकता है।
12) जन्म कुंडली में मंगल का संबंध किसी भी तरह से पंचम अथवा पंचमेश से बन रहा हो या लग्न अथवा लग्नेश से बन रहा हो तब भी संबंध स्थापित होने की संभावना बनती है।
कार्तिक महीने में कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को मनाये जाने वाले पर्व रूप चौदस को नरक चतुर्दशी, छोटी दीपावली, नरक निवारण चतुर्दशी या काली चौदस के
रुप में भी जाना जाता है। दिवाली के पांच दिनों के त्यौहार में यह धन तेरस के बाद अता है।
रूप चौदस के बाद दिवाली – लक्ष्मी पूजन के अलावा अगले दिन अन्न कूट, गोवर्धन पूजा और अंत में भाई दूज मनाया जाता है। इसे छोटी दीपावली के
तौर पर भी जाना जाता है।
इस दिन स्वच्छ होने के बाद यमराज का तर्पण कर तीन अंजलि जल अर्पित किया जाता है और शाम के वक्त दीपक जलाए जाते हैं। मान्यता है कि तेरस,
चौदस और अमावस्या के दिन दीपक जलाने से यम के प्रकोप से मुक्ति मिलती है तथा लक्ष्मी जी का साथ बना रहता है।
रूप चौदस सौन्दर्य को निखारने का दिन है। भगवान की भक्ति व पूजा के साथ खुद के शरीर की देखभाल भी जरुरी होती है। ऐसे में रूप चौदस का यह
दिन स्वास्थ्य के साथ सुंदरता और रूप की आवश्यकता का सन्देश देता है।
जिस प्रकार महिलाओं के लिए सुहाग पड़वा का स्नान माना जाता है, उसी प्रकार रूप चौदस पुरुषों के लिए शुद्घि स्नान माना गया है। वर्षभर ज्ञात, अज्ञात
दोषों के निवारणार्थ इस दिन स्नान करने का शास्त्रों में काफी महत्व बताया गया है।
माना जाता है कि सूर्योदय के पहले चंद्र दर्शन के समय में उबटन, सुगंधित तेल से स्नान करना चाहिए। सूर्योदय के बाद स्नन करने वाले को नर्क समान
यातना भोगनी पड़ती है। इसके अलावा यह भी मान्यता है कि ऋतु परिवर्तन के कारण त्वचा में आने वाले परिवर्तन से बचने के लिए भी विशेष तरीके से
स्नान किया जाता है।
रूप चौदस पर विशेष उबटन के जरिए और गर्मी और वर्षा ऋतु के दौरान बनी परत को हटाने के लिए विशेष उबटन का स्नान करना चाहिए।
*नरक चतुर्दशी मुहूर्त:-
*नरक चतुर्दशी 6 नवंबर मंगलवार 2018
*अभ्यंग स्नान समय :- 04.59 बजे से 06.36 बजे तक
*अवधि : 1 घंटे 37 मिनट
*नरक चतुर्दशी के नियम:-
*कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन चंद्रोदय या सूर्योदय (सूर्योदय से सामान्यत: 1 घंटे 36 मिनट पहले का समय) होने पर नरक चतुर्दशी मनाई जाती
है।
*नरक चतुर्दशी पूजन विधि:-
*नरक चतुर्दशी के दिन प्रात:काल सूर्योदय से पहले स्नान करने का महत्व है। इस दौरान तिल के तेल से शरीर की मालिश करनी चाहिए, उसके बाद
अपामार्ग यानि चिरचिरा को सिर के ऊपर से चारों ओर 3 बार घुमाना चाहिए।
*नरक चतुर्दशी से पहले कार्तिक कृष्ण पक्ष की अहोई अष्टमी के दिन एक लोटे में पानी भरकर रखा जाता है, जिसे नरक चतुर्दशी के दिन नहाने के पानी में
मिलाकर स्नान करने की परंपरा है। मान्यता है कि ऐसा करने से नरक के भय से मुक्ति मिलती है।
*स्नान के बाद दक्षिण दिशा की ओर हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करने पर मनुष्य द्वारा वर्ष भर किए गए पापों का नाश हो जाता है।
*घर के मुख्य द्वार से बाहर यमराज के लिए तेल का दीपक जलाएं।
*नरक चतुर्दशी के दिन शाम के समय सभी देवताओं की पूजन के बाद तेल के दीपक जलाकर घर की चौखट के दोनों ओर, घर के बाहर व कार्य स्थल के
प्रवेश द्वार पर रख दें। मान्यता है कि ऐसा करने से लक्ष्मी जी सदैव घर में निवास करती हैं।
*रूप चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने से सौंदर्य की प्राप्ति होती है।
*इस दिन अर्धरात्रि में घर के बेकार सामान फेंक देना चाहिए।
*मान्यता है कि नरक चतुर्दशी के अगले दिन दीपावली को लक्ष्मी जी घर में प्रवेश करती है, इसलिए दरिद्रता यानि गंदगी को घर से निकाल देना चाहिए।
लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा हर किसी को होती है। लक्ष्मी कृपा के लिए भगवान विष्णु की कृपा पाना अत्यन्त अवश्यक है क्योंकि लक्ष्मी उन्हीं के चरणों में रहती हैं। जो लोग केवल माता लक्ष्मी को पूजते हैं, वे भगवान नारायण से दूर हो जाते हैं। अगर हम नारायण की पूजा करें तो लक्ष्मी तो वैसे ही पीछे 2 आ जाएंगी, क्योंकि वो उनके बिना नहीं रह सकती ।
शास्त्रों में या भगवान विष्णु के किसी भी तस्वीर को देखें, आप पाएंगे कि मां लक्ष्मी सदैव उनके चरणों में बैठी ही दिखती हैं।
इस बारे में एक पौराणिक कहानी है
एक बार भगवान नारायण लक्ष्मी जी से बोले, “लोगों में कितनी भक्ति बढ़ गई है । सब “नारायण नारायण” करते हैं ।”
तो लक्ष्मी ने उत्तर दिया, “आप को पाने के लिए नहीं। मुझे पाने के लिए भक्ति बढ़ गई है।”
लक्ष्मी के ये बोलते ही भगवान बोलते हैं कि “लोग “लक्ष्मी लक्ष्मी” ऐसा जाप थोड़े ही करते हैं।”
मां लक्ष्मी नारायण की बात सुन कह देती हैं कि , “विश्वास ना हो तो परीक्षा हो जाए।”
भगवान नारायण एक गांव में ब्राह्मण का रूप लेकर गए।एक घर का दरवाजा खटखटाया।घर के यजमान ने दरवाजा खोल कर पूछा , “कहां के है ?”
तो भगवान बोले, “हम तुम्हारे नगर में भगवान का कथा-कीर्तन करना चाहते है…”
यजमान बोले, “ठीक है महाराज, जब तक कथा होगी आप मेरे घर में ही ठहरिए…”
गांव के कुछ लोग इकट्ठा हो गए और सब तैयारी कर दी।पहले दिन कुछ लोग आए। अब भगवान स्वयं कथा कर रहे थे तो संगत बढ़ी। दूसरे और तीसरे दिन और भी भीड़ हो गई। भगवान खुश हो गए, लोग कितनी भक्ति में लीन है ।
लक्ष्मी माता ने सोचा अब देखा जाए कि क्या चल रहा है। लक्ष्मी माता ने बुर्जुग माता का रूप लिया।और उस नगर में पहुंची। एक महिला ताला बंद कर के कथा में जा रही थी कि माता उसके द्वार पर पहुंची । बोली, 'बेटी थोड़ा पानी पिला दे।'
तो वो महिला बोली, माताजी साढ़े 3 बजे है। मुझे प्रवचन में जाना है।'
लक्ष्मी माता बोलीं, 'पिला दे बेटी थोड़ा पानी, बहुत प्यास लगी है। 'ये सुनते ही वो महिला लौटा भर के पानी लाई। माता ने पानी पिया और लौटा वापस लौटाया तो सोने का हो गया था।
यह देख कर महिला अचंभित हो गई, कि लौटा दिया था तो स्टील का और वापस लिया तो सोने का । कैसी चमत्कारिक माता जी हैं । अब तो वो महिला हाथ-जोड़ कर कहने लगी कि, 'माताजी आप को भूख भी लगी होगी, खाना खा लीजिए' ऐसा उसने ये सोचकर कहा कि अगर वो उसके घर खाना खाएंगी तो थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास भी सोने के हो जाएंगे।
माता लक्ष्मी बोली, 'तुम जाओ बेटी, तुम्हारा प्रवचन सुनने जाने का समय हो गया है ।'
मां लक्ष्मी की बात सुनकर वह महिला प्रवचन में चली गई, लेकिन वहां पहुंचते ही उसने सारी बातें आस-पास की महिलाओं को बता दी।
अब महिलाएं यह बात सुनकर चलते सत्संग में से उठ कर चली गई ।अगले दिन से कथा में लोगों की संख्या कम हो गई।तो भगवान ने पूछा कि, “लोगो की संख्या कैसे कम हो गई ?”।
किसी ने कहा, ‘नगर में एक चमत्कारिक माताजी आई हैं।' जिस गिलास में दूध पीती हैं वो गिलास सोने का हो जाता है। जिस थाली में रोटी सब्जी खाती हैं तो थाली सोने की हो जाती है। उस के कारण लोग प्रवचन में नहीं आते।'
भगवान नारायण समझ गए कि लक्ष्मी जी का आगमन हो चुका है।
इतनी बात सुनते ही देखा कि जो यजमान सेठ जी थे, वो भी उठ खड़े हो गए। और वहां से चले गए। और माता लक्ष्मी के पास पहुंच गए। । बोले, “ माता, मैं तो भगवान की कथा का आयोजन कर रहा था और आप ने मेरे घर को ही छोड़ दिया ।”
माता लक्ष्मी बोली, “तुम्हारे घर तो मैं सब से पहले आनेवाली थी । लेकिन तुमने अपने घर में जिस कथा कार को ठहराया है ना , वो चला जाए तभी तो मैं आऊंगी ।”
सेठ जी बोले, 'बस इतनी सी बात । अभी उनको धर्मशाला में कमरा दिलवा देता हूं ।'
जैसे ही महाराज कथा कर के घर आए, तो सेठ जी बोले, 'महाराज आप अपना बिस्तर बांधों । आपकी व्यवस्था अब से धर्मशाला में कर दी है ।'
महाराज बोले, “ अभी तो 2/3 दिन बचे है कथा के मुझे यहीं रहने दो”
सेठ बोले, “नहीं नहीं, जल्दी जाओ । मैं कुछ नहीं सुनने वाला । किसी और मेहमान को ठहराना है। ”
इतने में लक्ष्मी जी आई , कहा कि, “सेठ जी , आप थोड़ा बाहर जाओ। मैं इनसे बात कर लूंगी।”
माता लक्ष्मी जी भगवान से बोली, “प्रभु , अब तो मान गए?”
भगवान नारायण बोले, “हां लक्ष्मी तुम्हारा प्रभाव तो है, लेकिन एक बात तुम को भी मेरी माननी पड़ेगी कि तुम तब आई, जब संत के रूप में मैं यहां आया।।
संत जहां कथा करेंगे वहां लक्ष्मी तुम्हारा निवास जरुर होगा।”
यह कह कर नारायण भगवान ने वहां से बैकुंठ के लिए विदाई ली। अब प्रभु के जाने के बाद अगले दिन सेठ के घर सभी गांव वालों की भीड़ हो गई। सभी चाहते थे कि यह माता सभी के घरों में बारी 2 आए। लेकिन लक्ष्मी माता ने सेठ और बाकी सभी गांव वालों को कहा कि, अब मैं भी जा रही हूं। सभी कहने लगे कि, माता, ऐसा क्यों, क्या हमसे कोई भूल हुई है ? माता ने कहा, मैं वही रहती हूं, जहां नारायण का वास होता है। आपने नारायण को तो निकाल दिया, फिर मैं कैसे रह सकती हूं ?’ और वे चली गई।
सतनाम सब नामों से न्यारा है और पूर्ण परमात्मा की साधना से जीव सुखी होगा। काल, ब्रह्म तथा तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) व देवी-देवताओं की साधना से जीवन व्यर्थ जाएगा।
केवल सतनाम व सारनाम से मुक्ति है, बाकी साधना जैसे कहना, सुनना, सोच, असोच (व्यर्थ) है।सतनाम को त्याग कर यह साधना केवल लिपा-पोती है दिखावटी है, अंश नाम से जीव जन्म-मरण व चौरासी लाख योनियों में ही भटकता रहेगा।
केवल पूर्ण नाम सतनाम व सारनाम से जीव मुक्ति पाएगा। फिर पूर्ण गुरु अपने शिष्य को सारशब्द प्राप्त करवाएगा। तब यह जीव निर्वाण ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होगा।
पूर्णिमा के दिन शिवलिंग पर शहद, कच्चा दूध, बेलपत्र, शमीपत्र और फल चढ़ाने से भगवान शिव की जातक पर सदैव कृपा बनी रहती है, पूर्णिमा के दिन घिसे हुए सफेद चंदन में केसर मिलाकर भगवान शंकर को अर्पित करने से घर से कलह और अशांति दूर होती है।
प्रतिपदा तिथि के स्वामी अग्नि देव हैं, अग्नि देव इस पृथ्वी पर साक्षात् देवता हैं, देवताओं में सर्वप्रथम अग्निदेव की उत्पत्ति हुई थी।इस दिन भी शिव अभिषेक फलदायक होता है।
ऋग्वेद का प्रथम मंत्र एवं प्रथम शब्द अग्निदेव की आराधना से ही प्रारम्भ होता है, हिन्दू धर्म ग्रंथो में देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि देव का ही दिया गया है।